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________________ २११ सुधासीकर ३६. ऐसा कार्य मत करो जो पश्चात्ताप का कारण हो । मार्गशीर्ष कृ. १० वी. २४६४ ३०. लोक की मान्यता आत्मकल्याण की प्रयोजक नहीं, आत्मकल्याण की साधक तो निरीहवृत्ति है । मार्ग, कृ. १२ वी. २४६४ ३१. संसार अशान्ति का पुञ्ज है, अतः जो भव्य शान्ति के उपासक हैं उन्हें अशान्ति उत्पादक मोहादि विकारों की यथार्थता का अभ्यास कर एकान्तवास करना चाहिये । मार्ग. कृ. १४ वी, २४६४ ३२. प्रत्येक व्यक्ति के अभिप्राय को सुनो परन्तु सुनकर एकदम बहक मत जाओ । पूर्वापर विचार करो, जिससे आत्मा सहमत हो वही करो । बातें सुनने में जितनी कर्णप्रिय होती हैं उनके अन्दर उतना रहस्य नहीं होता । रहस्य वस्तु की प्राप्ति में है, दर्शन में नहीं, मिश्री का स्वाद चखने से आता है देखने से नहीं । पौष क. ४ वी २४६४ ३३. प्रत्येक कार्य का भविष्य देखो, केवल वर्तमान परिशाम के आधार पर कोई काम न करो, सम्भव है उत्तर काल में असफल हो जाओ । पौष कृ. Jain Education International २४६४ ३४. जो प्रारम्भ करते हैं, वे किसी समय अन्त को भी मात होते हैं, क्योंकि उनकी सीमा नियमित है । जो कार्य नियम पूर्वक किया जाता है वह एक दिन सिद्ध होकर हो रहता है। पौष ५ वी. For Personal & Private Use Only कृ. १७ वी. २४६४ www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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