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वर्णी-वाणी
ज्यठ ४.
२०. आवश्यकता से अधिक धन रखना सरासर चोरी है ।
ज्येष्ठ कृ. ८ वी. २४६३ २१. सत्य के सामने सभी आपत्तियाँ विलय को प्रात हो जाती हैं।
___ ज्येष्ठ कृ. १३ वी. २४६३ २२. उसी भाव का आदर करो जो अन्त में सुखद हो । और उस भाव को मूल से विच्छेद करो जो मूल से लेकर विपाक काल तक कष्टप्रद है।
ज्येष्ठ शु. ७.८ वी. २४६३ २३. बहु सङ्कल्पों को अपेक्षा अल्प कार्य करना श्रेयस्कर है।
__ श्रावण शु. ७ वी. २४६३ २४, जो मानव हृदयहीन हैं वे मित्रता के पात्र नहीं।
____ कार्तिक कृ. ४ वी. २४६३ २५. जन्म की सार्थकता स्वात्म हित में है। जो मनुष्य पर संसर्ग करता है वह संसार बन्धन का पात्र होता है ।
कार्तिक शु. ७ वी, २४६४ २६. आत्महित में प्रवृत्ति करने से अनायास ही अनेक यातनाओं से मुक्ति हो जाती है।
___ का. शु. ९ वी. २४६४ • २७. जो मनुष्य संसार में स्त्री के प्रेम में आकर अपनी परिणति को भूल जाता है वह संसार बन्धन से नहीं छूट सकता।
कार्तिक शु. १२ वी. २४६४ २८. जिसके पास ज्ञान धन है वही सच्चा धनी है।
मार्गशीर्ष कृ. ५ वी. २४६५
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