________________
२०३
सुधासीकर
६५. सबकी बात सुन कर स्वात्मतत्त्व की प्राप्ति में जो साधक हो उसे करो, शेष को त्याग दो।।
६६. व्रत का माहात्म्य वहीं तक कल्याणकारी है जहां तक ध्यान और अध्ययन में वह बाधक न हो।
६७. जिसे क्षमा का स्वाद आ गया वह क्रोधाग्नि में नहीं जल सकता । पुस्तकाभ्यास का फल आभ्यन्तर शान्ति है यदि अाभ्यन्तर शान्ति न आई तब पुस्तकाभ्यास केवल कायक्लेश
६८. चित्त का संतोष कर लेना अन्य बात है, और आभ्यन्तर शान्ति का रसपान करना अन्य बात है।
६६. वही बाह्य क्रिया सराहनीय है जो आभ्यन्तर की विशुद्धता में अनुकूल पड़े । केवल आचरण से कुछ नही होता, जबतक कि उसके गर्भ में सुवासना न हो। सेमर का फूल देखने में अति सुन्दर होता है, परन्तु सुगन्ध शून्य होने से किसी के उपयोग में नहीं आता। ___७. मोह के उदय में बड़ी बड़ी भूलें होती हैं। अतः जहां तक बने अपनी भूल देखो, पर की भूल से हमें क्या लाभ ।
७१. जिनमें आत्मा के गुणों का विकास होता है वही पूज्य होते हैं। जहां पर ये गुण विकृतावस्था में होते हैं वहीं अपूज्यता होती है।
७२. जो यह वैषयिक सुख है, वह भी दुःख रूप ही है, क्योंकि जब तक वह होता नहों तब तक तो उसके सद्भाव की आकुलता रहती है और होने पर भोगने की आकुलता रहती है । आकुलता ही जीव को सुहाती नहीं, अतः वही दुःखावस्था है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org