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________________ २०२ वर्णो-वाणो ५५. अपराधी व्यक्तिपर यदि क्रोध करना है तो सबसे बड़ा अपराधी क्रोध है वही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का शत्र है, अतः उसीपर क्रोध करो। ५६. शरीर को सर्वथा निर्बल मत बनाओ। व्रत उपवास करो, परन्तु जिसमें विशेष आकुलता हो जावे ऐसा व्रत मत करो, क्योंकि ब्रत का तात्पर्य आकुलता दूर करना है। ५७. संसार में किसी को शान्ति नहीं । केले के स्तम्भ में सार की आशा के तुल्य संसार-सुख की आशा है। ५८. गुरु शिष्य का व्यवहार मोह की परिणति है, वास्तव में न कोई किसी का शिष्य है न कोई किसी का गुरु है। अात्मा ही आत्मा का गुरु है और आत्मा ही आत्मा का शिष्य है। ५६. आडम्बर और है वस्तु और है, नकल में पारमार्थिक वस्तु की आभा नहीं आती। हीरा की चमक काँच में नहीं । अतः पारमार्थिक धर्म का व्यवहार से लाभ होना परम दुर्लभ है। इसके त्याग से ही उसका लाभ होगा। ६०. ममत्व ही बन्ध का जनक है। ६१. जहां तक बने पर के जानने देखने की इच्छा को छोड़ निज को जानना देखना ही श्रेयस्कर हैं। ६२. अपनी आत्मगत जो त्रुटि है उसको दूर करने का यत्न करने से यदि अवकाश पा जाओ तब अन्य का विचार करो । ६३. मुख्यता से एकत्व परिणत आत्मा ही मोक्ष का हेतु है। ६४. स्वात्मोन्नति के लिये जहां तक बने दृढ़ अध्यवसाय की आवश्यकता है। शरीर की कृशता उस कार्य में उपयोगी नहीं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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