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________________ सुधासीकर सर्व विकल्पों को छोड़ केवल स्वात्म बोध के अर्थ किसी को भी दोषी न समझ कर सबको हितकारी समभो । ४७. मेरी समझ में दो ही मार्ग उत्तम हैं एक तो गृहस्थावस्था में जल में कमल की तरह रहना और दूसरे जिस दिन पैसा से ममता छूट जावे, घर छोड़ देना । २०१ ४८. जब तुम्हें शान्ति मिल जावे तब दूसरे को उपदेश दो | जब तक अपनी कषाय न जावे अन्य को उपदेश देना वेश्या को ब्रह्मचर्य का उपदेश देने की भाँति है । ४६. सहसा घर मत त्यागो, जिस दिन त्याग की इच्छा के अनुकूल साधन हो जायें और परिणामों में सांसारिक विषयों से उदासीनता हो जावे विरक्त हो जाओ । ५०. संसार में कोई किसी का नहीं । व्यक्ति अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरता है । अत: जब ऐसी व्य वस्था अनादि निधन है तब पर के सम्पर्क से असम्भव द्वैत बनने की चेष्टा करना क्या आकाश से पुष्पचयन करने के सदृश नहीं है ? ५१. संसार में देखिये वास्तव में कोई भी पूर्ण सुखी नहीं है, क्योंकि जिसे हम सुखी समझते हैं वह भी अंशतः दुखी ही है । ५२. योग्यता देखकर दान करने से संसार लतिका का नाश होता है। अयोग्यता से संसार बढ़ता है । ५३. अपने में पर के प्रति निर्मलता का भाव होना ही स्वच्छता है । ५४. द्रव्य का मिलना कठिन नहीं परन्तु उसका सदुपयोग विरले ही पुण्यात्माओं के भाग्य में होता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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