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वर्णी-वाणी
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४२. आत्मीय गुण का विकाश उसी आत्मा के होगा जो पर पदार्थों से स्नेह छोड़ेगा । आत्मकल्याण का अर्थी शुद्धोपयोग के साधक जो पदार्थ हैं उनसे भी स्नेह छोड़ देता है तब अन्य की कथा ही क्या है। ___४३. स्वयं जिन 'कर्मों के' हम कर्त्ता बन रहे हैं यदि चाहें तो उन्हें हम ध्वंस भी कर सकते हैं। जो कुम्भकार घट बना सकता है वहीं उसे फोड़ भी सकता है। इसी तरह जिस संसार का हमने संचय किया यदि हम चाहें तो उसका ध्वंस भी कर सकते हैं। वास्तव में संचय करने की अपेक्षा श्वंस करना बहुत सरल है। मकान बनवाने में बहुत समय और बहुत साधनों की जरूरत होती है लेकिन ध्वंस करने के लिये तो दो मज़दूर ही पर्याप्त हैं।
४४. एक बार यथार्थ भावना का आश्रय लो और इन कलंक भावों की ज्वाला को संतोष के जल से शान्त करो। इससे अपने ही आप अहं बुद्धि का प्रलय होकर 'सोऽहं विकल्प को भी स्थान मिलने का अवसर न आवेगा। वचन की पटुता, काय की चेष्टा, मन के व्यापार, इन सबका वह विषय नहीं । ____४५. जहाँ सूर्य है वहीं दिन है । जहाँ साधु जन हैं वहीं तीर्थ है । जहाँ निस्पृह त्यागी रहते हैं वहीं अच्छा निमित्त है।
४६. दान का द्रव्य ऋण है; उससे मुक्त होना ही अच्छा है। निमित्त में शुभाशुम कल्पना छोड़ना ही हितकारा है । निमित्त बलात्कार हमारा कुछ अनर्थ नहीं कर सकते । यदि हम स्वयं उनमें इष्टानिष्ट कल्पना कर इन्द्रजाल की रचना करने लग जावें तब इसे कौन दूर करे ? हम ही दूर करनेवाले हैं। अतः
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