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और आत्मीयार में अनन्त पदार न होगा
उनका न कभीर में अनन्त पदार्थहना हितकर है।मृत का पान
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सुधासीकर नीरगता के लिये नियमित औषधि सेवन और पथ्य भोजन करना हितकर है उसी तरह मानसिक स्वस्थता के लिये निग्रन्थ गुरु के रामवाण औषधि तुल्य उपदेशामृत का पान और आत्मीय गुणों में अनुरक्त रहना हितकर है।
१७. संसार में अनन्त पदार्थ हैं, और वे सर्वदा रहेंगे। उनका न कभी अभाव हुआ और न होगा। अतः अपने स्वरूप को ओर लक्ष्य रक्खो, पर के छोड़ने का प्रयास व्यर्थ है, क्योंकि पर तो पर ही है, अतः पृथक् है ही।
१८. जैसे दीपक से दोपक होता है, वैसे ही परमात्मा के स्मरण से भी परमात्मा बन जाता है, किन्तु जैसे अरणि निर्म: न्थन से अग्नि होती है, वैसे ही अपनी उपासना से भी परमात्मा हो जाता है।
१६. बाह्य व्रतादिकों में जबतक आभ्यन्तर विशुद्ध भावका समावेश न होगा, तब तक वे केवल कष्टप्रद ही होंगे।
२०. निवृत्तिमार्ग का न कोई समर्थक है, न कोई निषेधक है और न कोई उस पवित्र भाव का उत्पादक है। जिसके इस अभिवन्दनीय भाव को प्राप्ति हो गई उसे ही हम सिद्धात्मा की पूर्व अवस्था समझते हैं और उसी को भव्य कहते हैं। ___२१. जैसे संसार को उत्पन्न करने में हम समर्थ हैं वैसे मोक्ष के उत्पन्न करने में भी हम स्वयं समर्थ हैं। अथवा यों कहना चाहिये कि आत्मा हो आत्मा को संसार और निर्वाण में ले जाता है अतः परमार्थ से आत्मा का गुरु आत्मा ही है।
२२. कर्मोदय की बलवत्ता वहीं तक अपना पुरुषार्थ कर सकती है जब तक आत्मा ने अपने स्वरूप को प्रतिष्ठा नहीं को । जिसने आत्मस्वरूप का अवलम्बन किया उसके समक्ष
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