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________________ वर्णी-वाणी १९६ ६. परघात में जब प्रमत्त योग होता है तभी हिंसा होती है, अन्यथा नहीं, परन्तु आत्मघात में तो प्रमत्तयोग का पर दादा मिथ्यात्व होने से हिंसा निश्चत रूप से है। अतः सबसे बड़ा पाप परघात है और उससे भी बड़ा पाप आत्मघात है। १०. रागद्वेष निवृत्ति पद जहां हो वही आत्मा है । ११. जब स्वात्म-रस का आस्वाद आ जाता है तब अन्य रस का विचार ही नहीं रहता। १२. आत्मा का तथ्य श्रद्धान अनन्त क्रोधाग्नि को शान्त करने में समर्थ है। १३. परपदार्थ न शुभ बन्ध का जनक है और न अशुभ बन्ध का जनक है। निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध से उन्हें मूल कर्ता मानना श्रेयोमार्ग में उपयोगी नहीं। १४. दुःख का लक्षण आकुलता है और आकुलता का कारण रागादिक है। जो इन्हें आत्मीय समझता है वही दुःख का पात्र होता है। १५. यह दृश्यमान पर्याय विजातीय जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों के सम्बन्ध से बनी है, अतः उसमें निजत्व मानना उतना ही हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण है जितना साझे की दुकान को केवल अपनी मानना हास्यास्पद है। इसलिए इस पर्याय से ममत्व छोड़ कर और निज में स्वत्व मान कर आत्मद्रव्य की यथार्थता को अवगम कर पर की संगति से विरक्त होना ही स्वात्महित का अद्वितीय मार्ग है।। - १६-ध्याय आदि शुभ कार्यों में बाधा का मूल कारण केवल शरीर को दुर्बलता ही नहीं, मोह की सबलता भी है। इसे कृश करना अपने आधीन है। किन्तु जिस तरह शारीरिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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