________________
सुधासीकर
अध्यात्मखण्ड
१.
बाह्याडम्बर की शोभा वहीं तक है जहाँ तक स्वात्मतत्त्व में आकुलता न होने पावे ।
२. तत्त्वज्ञ वही है जो जगत् की प्रवृत्ति देखकर हर्ष विषाद न करे ।
३.
आत्मलाभ से उत्कृष्ट और कोई लाभ नहीं ।
४. भोगी ही योगी हो सकता है । बिना भोग के योग नहीं ।
५.
गारा, ईट, चूना से मकान ही बनता है, इन्द्रभवन नहीं । सांसारिक सुखों से शरीर ही सुखी होगा, आत्मा नहीं |
६. गृह छोड़ना कठिन नहीं मूर्च्छा छोड़ना कठिन है । ७. गृहस्थ धर्म को एकदम अकल्याण का मार्ग समझना मोक्ष मार्ग का लोप करना है ।
८. केवल आत्म-संयम के अतिरिक्त संसार में विकल्पों को औषधि नहीं, और इसके अर्थ किसी को महान मानना लाभदायक नहीं ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org