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पराधीनता
१. हम लोग अनादिकाल से निरन्तर पराधीन रहे और उस पराधीनता में आत्मीय परिणति को पराधीनता का कारण न मान पर को उसका कारण मानते आये हैं। इसी प्रकार पराधीनता के वन्धन से मुक्त होने में भी निरन्तर पर ही को कारण मानने की चेष्टा करते आये हैं । यही कारण है कि रोगी होने पर हम एकदम वैद्य को बुलाने की चेष्टा करते हैं। इसी प्रकार जब हम किसी प्रकार के दुःख से दुखी होते हैं तब कहते हैं- "हे भगवन् ! यदि हमारे नीरोगता हो गई तब आपका पूजा, पाठ, व्रत, विधान या पञ्चकल्याणक करेंगे !” पुत्र व धनादिक के लालची तो यहाँ तक बोली लगाते हैं—'हे चांदनपुर के महावीर ! यदि हमारे धन और बालक हो गया तो मैं आपको अखंड दीपक चढ़ाऊँगा ! हे काली कलकत्तेवाली ! तू जो चाहे सो ले ले पर एक लाड़ला लाल मुझे दे दे !" कितनी मूर्खता की बात है पर के द्वारा आत्म-कल्याण चाहते हैं। देवी देवताओं को भी लोभ लालच और लांच घूस देने की चेष्टा करते हैं। यह सब पराधीनता का विलास है, इसे त्यागो और शूरवीर बनो तभी कल्याण होगा।
२. संसार में दुःख की उत्पत्ति का मूल कारण पराधीनता है।
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