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स्वपर चिन्ता
१. चिन्ता चाहे अपनी हो चाहे पर की, बहुत ही भयङ्कर वस्तु है "चिता" और "चिंता" शब्द लिखने में तो केवल एक बिन्दी मात्र का अन्तर है परन्तु स्वभावतः दोनों ही विलक्षण हैं । चिता मृत मनुष्य को एक ही बार जलाती है परन्तु चिन्ता जीवित मनुष्य को रह रहकर जलाती है !
२. परमार्थ की कथा का स्वाद तो भाग्यशाली जीव ही ले सकते हैं । वही परमार्थ का अनुयायी है जो सब चिन्ताओं से दूर रहता है ।
३. इस काल में सत्पथ का पथिक वही हो सकता है जो पर की चिन्ताओं से अपने को बचा सके ।
४. पर चिन्ता की गन्ध भी सुखावह नहीं ।
५. चिन्ता आत्मा के पौरुष को क्षीण कर चतुर्गति भवावर्त में पातकर नाना दुःख का पात्र बना देती है ।
६. पर चिन्ता से कभी पार न होगे । आत्म चिन्ता भी तभी लाभ दायक हो सकती है जब आत्मा को जानो, मानो और तप होने का प्रयास करो ।
७. पर की चिन्ता कल्याण पथ का पत्थर हैं ।
८. उन पुरुषों का अभी निकट संसार नहीं जो पर की चिन्ता करते हैं ।
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