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परिग्रह
२२. मूर्छा की न्यूनता में स्वात्मा की प्राप्ति हो सकती है। २३. संसार में स्वाधीन कौन है ? त्यागी। परिग्रही नहीं । २४. परिग्रह धर्म का साधक नहीं बाधक है।
२५. परिग्रह लेने में दुःख, देने में दुःख, भोगने में दुःख, धरने में दुःख, सहने में दुःख ! धिक्कार इस दुःखमय परिग्रह को !
२६. संसार में मूर्छा ही एक ऐसी शक्ति है जिसके जाल में सम्पूर्ण संसार फँसा हुआ है । वे धन्य हैं जिन्होंने इस जाल को तोड़कर स्वतन्त्रता प्राप्त की। इस जाल की यह प्रकृति है कि जो इसे तोड़कर निकल जाता है वह फिर इसके बन्धन में नहीं आता परन्तु दूसरे को यह बन्धन रूप ही रहता है। अतः अव पुरुषार्थ कर इसे तोड़ो और स्वतन्त्र बनो।
२७. जब आयु का अन्त आवेगा यह सब आडम्बर यों हो पड़ा रह जायगा।
२८. जितना परिग्रह अर्जित होगा उतनी ही आकुलता बढ़ेगी । यद्यपि लौकिक उपकार परिग्रह से होता है परन्तु अन्त में उतम पुरुष उसे त्यागते ही हैं।
२६. मूर्छा ही बन्ध का कारण है,परन्तु यह समझ में नहीं आता कि वस्तु का संग्रह रहे और मूर्छा न हो । स्वामी कुन्दकुन्द का तो यह कहना है कि जीव के घात होने पर वन्ध हो या न हो पर परिग्रह के सद्भाव में बन्ध नियम से होता है। अतः जहाँ तक बने भीतर से मूर्छा घटाना चाहिये ।
३०. आत्महित का मूल कारण व्यग्रता की न्यूनता है और व्यग्रता का मूल कारण परिग्रह की बहुलता है। यह एक भया
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