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वर्णी-वाणी
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निमित्त भी दो प्रकार के हैं-भगवद्भक्ति आदि जो धर्म के अङ्ग हैं इनके अहंतादि निमित्त हैं और विषय कषाय जो पाप के अङ्ग हैं इनके पुत्रकलत्रादि निमित्त हैं। इन बाह्य पदार्थों पर ही अवलम्बित रहना श्रेयस्कर नहीं ।
१५. मेरा तो शास्त्र स्वाध्याय और अनुभव से यह विश्वास हो गया है कि संसार में अनर्थों और घोर अत्याचारों की जड़ परिग्रह ही है। जहाँ यह इकट्ठा हुआ वहीं झगड़ा होता है। जिन मठों में द्रव्य है वहाँ सब प्रकार का कलह है।
१६. जहाँ परिग्रह न हो वहाँ आनन्द से धर्मसाधन की सुव्यवस्था है। इसकी बदौलत ही आज भगवान का 'खजाने वाला' नाम पड़ गया। कहाँ तक कहें, सभी जानते हैं कि समाज में वैमनस्य का कारण धर्मादाय का द्रव्य भी है।
१७. त्यक्त परिग्रह को ग्रहण करना वमन को भक्षण करने के तुल्य हैं।
१८. मेरा तो यह बढ़ विश्वास है कि परिग्रह ही संसार है और जब तक इससे प्रेम है कैसा भी तपस्वी हो संसार से मुक्त नहीं हो सकता।
१६. मुक्ति का मूल्य परिग्रह का अभाव है।
२०. जब हमारे पास परिग्रह है, तब हम कहें "हमें इसकी मूर्छा नहीं" यह असम्भव है। विकल्प जाल छूटना ही मोक्ष मार्ग का साधक है।
२१. यह संसार दुःख का घर है, आत्मा के लिये नाना प्रकार को यातनाओं से परिपूर्ण कारावास है। इससे वे ही महानुभाव पृथक् हो सकेंगे जो परिग्रह पिशाच के फन्दे में न आवेंगे।
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