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वर्णी-वाणी
१८० यह 'समाजवाद' या 'कम्यूनिस्टवाद' क्यों होते ? आज यदि परिग्रह के धनी न होते तब ये हड़तालें क्यों होती ? यदि परिग्रह पिशाच न होता.तब जमींदारी प्रथा, राजसत्ता का विध्वंस करने का अवसर न आता ? यदि यह परिग्रह-पिशाच न होता तब काँग्रेस जैसी स्वराज्य दिलानेवाली संस्था विरोधियों द्वारा निन्दित न होती और वे स्वयं इनके स्थान में अधिकारी बनने की चेष्टा न करते ? आज यह परिग्रह-पिशाच न होता तो हम उच्च हैं, आप नीच हैं, यह भेद न होता। यह पिशाच तो यहां तक अपना प्रभाव प्राणियों पर जमाये हुए है जिससे सम्प्रदायवादियों ने धर्म तक को निजी धन मान लिया है। और धर्म की सीमा बाँध दी है। तत्त्वदृष्टि से धर्म 'तो आत्मा की परिणति विशेष का नाम है, उसे हमारा धर्म है यह कहना क्या न्याय है ? जो धर्म चतुर्गति के प्राणियों में विकसित होता है उसे इने-गिने मनुष्यों में मानना क्या न्याय है ? परिग्रहपिशाच की ही यह महिमा है जो इस कुए का जल तीन वर्षों के लिए है, इसमें यदि शूद्रों के घड़े पड़ गये तव अपेय हो गया ! जब कि टट्टी में से होकर नल आ जाने से भी जल पेय बना रहता है ! अस्तु, इस परिग्रह पाप से ही संसार के सब पाप होते हैं। श्री वीर प्रभु ने तिल-तुषमात्र परिग्रह न रखके पूर्ण अहिंसा व्रत की रक्षा कर प्राणियों को बता दिया कि यदि कल्याण करने की अभिलाषा है तब दैगम्बरपद को अंगीकार करो । यही उपाय संसार बन्धन से छूटने का है।
५. परिग्रह अनर्थो का प्रधान उत्पादक है यह किसी से छिपा नहीं, स्वयं अनुभूत है। उदाहरण की आवश्यकता नहीं, आवश्यकता उससे विरक्त होने की है।
६. आवश्यकताएँ तो इतनी हैं कि संसार के सब पदार्थ
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