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सचमुच में अपने इस गुरुमण्डल की इस उदारता का चिरऋणी रहूँगा।
“वर्णीवाणी" द्वितीय संस्करण की सहायता के लिये श्रीमान् पं० खुशालचन्द्रजी साहित्याचार्य एम० ए० काशी ने वर्णीजी के ३०० पत्रों का एक संगह प्रदान किया। धर्म वन्धु श्री ब्र. नाथूरामजी दरगुवाँ ( वर्तमान जैन उदासीनाश्रम ईशरी) ने वर्णीजी की पाँच वर्ष की दैनन्दिनी (डायरियाँ) प्रदान की तथा वर्णीजी की धर्ममाता की देवरानी श्री शान्तिबाईजी अध्यापिका सागर ने वणीजी के सरस्वती भवन के रद्दी के ढेर में से वर्णीजी के २८ वर्ष के प्राचीन लेखादि संगह करने की मुझे सुविधा दी, इसके लिये मैं उक्त सभी वर्णी-भक्त महानुभावों का आभारी हूँ।
सहृदय साहित्य-सेवी श्रीमान् पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री महोदय ने “पुस्तक का पारिभाषिक शब्दकोष एवं भूमिका लिखी तथा इस कार्य में हर तरह पूर्ण सहयोग दिया, अतः आपका जितना भी आभार मानूं, थोड़ा ही होगा।
विचार था यह संस्करण बिना मूल्य घर-घर में पहुंचे परन्तु इस का कोई सुयोग न मिला। हम वर्णी-गन्थमाला के कृतज्ञ हैं जिसने यह - संस्करण प्रकाशित कर समाज को वर्णीजी जैसे महात्मा के उपदेशों को सुलभ बनाया। इसके अतिरिक्त अन्य जिन महानुभावों का प्रत्यक्ष परोक्ष जो भी सहयोग मिला, सभी का आभारी हूँ।
पहिले संस्करण में पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की कमी प्रतीत हुई, अतः इस संस्करण में पूर्ति की गई है। एक विद्यार्थी से भूल होना असम्भव नहीं, अतः आशा है पाठक एवं समालोचक सज्जन मुझे क्षमा करने की अपेक्षा त्रुटियाँ सूचित करेंगे जिन्हें अगले संस्करण में सुधारा जा सके।
वीजी की पवित्र विचारधारा "वर्णीवाणी" समाज को सुख-समृद्धि एवं शान्तिदायक होगी, ऐसा मेरा विश्वास है। श्री चि० मु० ऐंग्लो बंगाली कालेज, काशी
विद्यार्थी-"नरेन्द्र" जैन श्रुतपञ्चमी, वि० सं० २००६ )
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