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________________ पूज्य श्री १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी की जीवन झांकी बालक गणेश श्री हीरालालजी का हीरा और उजयारी बहू की आँखों का दिव्य उजेला बालक गणेश का जन्म वि० सं० १६३१ की आश्विन कृष्ण ४ को हुआ । प्रकृति की निराली सुषुमा प्राकृतिक मंगलाचार करती प्रतीत हो रही थी। हसेरा गाम ( झाँसी ) अपने को कृतकृत्य और वहाँ की गरीब कुटियाँ अपने को धन्य समझ रही थीं। मुस्कराता हुआ बालक सहसा अातुर हो उठता खेलते-खेलते अपने आपको कुछ समझने के लिये, दूसरों को कुछ समझाने के लिये। विद्यार्थी गणेशीलाल होनहार विद्यार्थी गणेशीलाल का क्षेत्र अब घर नहीं एक छोटा-सा देहाती स्कूल और मडावरा का श्री राममन्दिर था। वि० सं० १६३८, अवस्था ७ वर्ष की थी परन्तु विवेक बुद्धि, प्रतिभाशालिता और विनय सम्पन्नता ये ऐसे गुण थे जिनके द्वारा विद्यार्थी गणेशीलाल ने अपने विद्या गुरु श्री मूलचन्द्रजी शर्मा से विद्या को अपनी पैतृक सम्पत्ति या धरोहर की तरह प्राप्त किया। गुरु की सेवा करना अपना कर्तव्य समझ कर गुरुजी का हुका भरने में भी कभी आना कानी नहीं की। निभीकता भी कूट-कूट कर भरी थी, आखिर एक बार तम्बाकू के दुर्गण गुरुजी को बता दिये, हुका फोड़ डाला गुरुजी प्रसन्न हुए, हुक्का पीना छोड़ दिया। ___ बचपन की लहर थी, विवेक परायणता साथ थी, जैन मन्दिर के चबूतरे पर शास्त्र प्रवचन से प्रभावित होकर विद्यार्थी गणेशीलाल ने भी रात्रि भोजन त्याग की प्रतिक्षा ले ली। यही वह प्रतिज्ञा थी, यही वह त्याग था, जिसने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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