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लोभ लालच १. छोटा या बड़ा, धनी या निर्धन, त्यागी या गृहस्थ किसी को भी लालची बनाना महापाप है ।
२. पाप का पिता, माया का पति, वञ्चकता का भाई, और दुर्वासना का पुत्र एकमात्र लालच ही है। ३. लोभ की अपेक्षा पाप सूक्ष्म है, यही सबका जनक है।
४. लोभ के वशीभूत हो अच्छे अच्छे विद्वान् ठगाये जाते हैं, मूखों का ठगाया जाना तो कोई बड़ी बात नहीं ।
५. लोभी त्यागी से निर्लोभ गृहस्थ अच्छा है।
६. लोभ से मनुष्य नांच वृत्ति हो जाता है। लोभही पाप की जड़ है । लोभ के वशीभूत होकर यह जीव नाना प्रकार के अनर्थों को उत्पन्न करता है। उच्च वंश का जन्मा भी लोभी मनुष्य नीच की सेवा में तत्पर हो जाता है, अपनी पवित्र भावनाओं को त्याग देता है !
७. लोभ कषाय के सद्भाव में लोभी का धन किसी उपयोग में नहीं आता । लोभी अथक परिश्रम कर धन जोड़ते जोड़ते अपयश की मौत मरता है, परन्तु उसका धन मरण के बाद या तो कुटुम्बियों को मिलता है या राज्य में चला जाता है ! स्वयं उसे वदनामी और पाप के सिवा कोई भी सुख उस धन से नहीं मिलता।
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