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रागध कर सकती और न स्थिति और अनुभागवाले बन्ध को ही कर सकती है।
६. जिसका मोह दूर हो गया है वह जीव सम्यक् स्वरूप को प्रात करता हुआ यदि रागद्वेष को त्याग देता है तो वह शुद्ध आत्मतत्त्व को प्रात कर लेता है अन्य कोई उपाय आत्मतत्व की प्राति में साधक नहीं।
७. वास्तव आनन्द तो तब होगा जब ये रागादि शत्रु दूर हो जाएँगे । इनके सद्भाव में आनन्द नहीं ?
८. आज तक हमने धर्मसाधन बहुत किया परन्तु उसका प्रयोजन जो रागादिनिवृत्ति है उस पर दृष्टि नहीं दी फल यह हुआ कि टस से मस नहीं हुए।
६. सब उपद्रवों की जड़ रागादिक भाव हैं । जिसने इन पर विजय पा ली वही भगवान् बन गया।
१०. मोह की दुर्बलता भोजन की न्यूनता से नहीं होगी किन्तु रागादि के त्यागने से होगी।
११. घर हो या बन, परिणाम हर जगह निर्मल रक्खे जा सकते हैं।
१२. "घर रहने में रागादिकों की वृद्धि होती हैं" इस भूत को हृदय से निकाल दो । जबतक इसको नहीं निकालोगे कभी भी रागादिक से निर्मुक्त न होगे।
१३. जहाँ राग है वहीं रोग है।
१४. बीज में फल देने की शक्ति है परन्तु उसे बोया न जावे तब उसकी सन्तति हो न रहेगी । इसी प्रकार रागद्वेष में संसारफल देनेकी सामर्थ्य है परन्तु यदि उनसे मनफेर लिया जावे तब फिर उनमें संसार फल जनने की सामर्थ्य ही नहीं रह सकती।
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