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वर्णा-वाणी
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१६. संसार को भयङ्कर दशा यूरोपीय युद्ध से प्रत्यक्ष हो गई फिर भी केवल मोह की प्रबलता है कि प्राणी आत्महित में नहीं लगता।
१७. जो मोही जीव हैं वे निमित्त की मुख्यता से ही मोक्षमार्ग के पथिक बनते हैं।
१८. निश्चय कर मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, ज्ञानदर्शनात्मक हूँ, इस संसार में अन्य परमाणुमात्र भी मेरा नहीं परन्तु मोह ! तेरी महिमा अचिन्त्य है, अपार है जो संसारमात्र को अपना वनाना चाहता है । नारकी की तरह मिलने को तो कण भी नहीं परन्तु इच्छा संसार भर के अनाज खाने की है !
१६. जिसका मोह नष्ट हो जाता है उसके ज्ञेयज्ञायकभाव का विवेक अनायास ही हो जाता है।
२०. विकल्प का कारण मोह है । जब तक मोह का अंश है तब तक यथाख्यात चरित्र का लाभ नहीं, जब तक यथाख्यात चरित्र नहीं जब तक आत्मा में स्थिरता नहीं, जब तक आत्मा में स्थिरता नहीं तब तक निराकुलता नहीं, जब तक निराकुलता नहीं तब तक स्वात्मानुभूति नहीं और जब तक स्वात्मानुभूति नह तब तक शान्ति और सुख नहीं !
२१. दर्शनमोह के नाश होने पर चारित्रमोह की दशा स्वामोहीन कुत को तरह हो जाती है-भोंकता है परन्तु काटने में समर्थ नहीं।
२२. संसार दुःखमय हैं इससे उद्धार का उपाय मोह की कृशता है उस पर हमारी दृष्टि नहीं । दृष्टि हो कैसे, हम निरन्तर परपदार्थों में रत हैं अतः तत्त्वज्ञान भी कुछ उपयोगी नहीं।
२३. यह अच्छा है. वह जयन्य है, अमुक स्थान उपयोग
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