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मोह
८. मोह को कृशता होने पर ही आनन्द का विकास होता है । उसके होने में हम स्वयं उपादान है निमित्त तो निमित्त
६. जिस काल में हमारी आत्मा रागादिरूप न परिणमे वही काल आत्मा के उत्कर्ष का है । उचित मार्ग यही है कि हम पुरुषार्थ कर रागादि न होने दें।
१०. जिस तरफ दृष्टि डालें उसो और उपद्रव हो उपद्रव दृष्टि में आते हैं, क्योंकि दृष्टि में मोह है। कामला रोगवाले को जहाँ भी दृष्टि डाले पीला ही दिखाई देता है।
११. जो सिद्धान्तज्ञान आत्मा और पर के कल्याण का साधक था आज उसे लोगों ने आजीविका का साधन बना रखा है ! जिस सिद्धान्त के ज्ञान से हम कर्मकलङ्क को प्रक्षालन करने के अधिकारी थे आज उसके द्वारा धनिकवर्ग का स्तवन किया जाता है ! यह सिद्धान्त का दोष नहीं; हमारे मोह की वलबत्ता है।
१२. आनन्द के बाधक यह सब ठाठ है परन्तु हम मोही जीव इन्हें साधक समझ रहे हैं।
१३. सभी वेदनाओं का मूल कारण मोह ही हैं। जब तक यह प्राचीन रोग आत्मा के साथ रहेगा भीषण से भीषण दुःखों का सामना करना पड़ेगा।
१४. जब तक मोह नहीं छूटा तब तक अशान्ति है। यदि वह छूट जावे तो आज शान्ति मिल जाय ।।
१५. केवल चित्त को रोकना उपयोगी नहीं, मन आत्मा के लेश का जनक नहीं, क्लेश का जनक मोहजन्य रागादि हैं। अतः इन्हीं को दूर करने की चेष्टा ही सुखद है।
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