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________________ आत्म-प्रशंसा १. जब तक हमारी यह भावना है कि लोग हमें उत्तम कहें और हमें अपनी प्रशंसा सुहावे तब तक हमसे मोक्षमार्ग अति दूर है। २. जो आत्म-प्रशंसा को सुन कर सुखी और निन्दा को सुन कर दुखी होता है उसको संसार सागर बहुत दुस्तर है । जो आत्म-प्रशंसा को सुनकर सुखो और निन्दा को सुनकर दुखी नहीं होता वह आत्म गुण के सन्मुख है। जो आत्म-प्रशंसा सुन कर प्रतिवाद कर देता है वह आत्मगुण का पात्र है। ३. जो अपनी प्रशस्ति चाहता है वह मोक्षमार्ग में कण्टक विछाता है। ४. अात्म-प्रशंसा आत्मा को मान कपाय की उत्पत्ति भूमि बनाती है। ५. आत्मश्लाघा में प्रसन्न होना संसारी जीवों की चेष्ठा है । जो मुमुक्ष हैं वे इन विजतीया भावों से अपनी आत्मा की रक्षा करते है। ६. आत्म-प्रशंसा सुनकर जो प्रसन्नता होती है,मत समझो कि तुम उससे उन्नत हो सकोगे । उन्नत होने के लिये आत्मप्रशंसा की आवश्यकता नहीं आवश्यकता सद्गुणों के विकाश की है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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