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जागृत हुए बिना न रहती किन्तु इससे एक नया वातावरण उठ खड़ा हुआ जिसे देखकर मुझे अपनी भूल याद आई कि वास्तव में समाज में अभी-“वालादपि सुभाषितं गायम्" (बच्चों की भी न्याय नीति की बात सुनने ) की क्षमता नहीं आई अतः मैंने यह लेख लिखकर अरण्यरोदन की बड़ी भारी भूल की।
इस विषम वातावरण का मेरे ऊपर जो प्रभाव पड़ा उससे हार्दिक क्षोभ होना स्वाभाविक ही था। परन्तु सौभाग्य यह रहा कि कुछ ऐसे सज्जन मिले जिन्होंने मुझे हार्दिक सान्त्वना दी। उनमें एक थे श्रीमान् बाबू बालचन्द्रजी मलैया बी० एस० सी० सागर जिन्होंने अपने पत्र द्वारा मुझे साहस दिया। मलैयाजी ने अपने ता० ८-६-४७ के पत्र में लिखा"भा० नरेन्द्र !
"पत्र आपका भादों कृष्ण ६ का आया। बड़े कार्य करने के लिये ख्याल उस कार्य से बहुत बड़े रखने पड़ते हैं। कारण, कार्य-सिद्धि तभी होती है जब कि वह मन, वचन, काय से किया जाय। जब सभी एक ही दिशा में निर्मल प्रगति करें। मेरे यह लिखने का तात्पर्य यही है कि अगर
आप या और कोई ऐसे कार्य को उठाने का बीड़ा उठाना चाहेंगे तब उन्हें ऐसा ही करना होगा। कोई कार्य बिलकुल ही उतावली से न करना होगा । गम्भीरता व सावधानी बहुत जरूरी है। कार्य के उपलक्ष्य में हमें उसमें आहुति देनी होती है, तभी कार्य सफल हो सकता है। हमारे धर्म के उच्च आदर्श हैं पर वे एक अकर्मण्य समाज के हाथ में हैं, निठल्ली व मनवचन-काय से गिरी हुई समाज के हाथ में हैं। आत्मबल तो इसीलिये है हो नहीं। फिर बड़े कार्य करने की क्षमता कहाँ से हो! आपको मैंने इन बातों का लक्ष्य केवल इसीलिये किया है कि अगर आपको समाज का कल्याण करना है तो अपने को उस पर आहुति देना होगा । व मेरे से भूले भटके की तरह जो कुछ भी होगा, मैं सहयोग में तत्पर रहूँगा। आपने जो पत्र में लिखा है वह कटु-सत्य है, पर हमारे सामने समस्या एक ऐसी
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