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अपनी भूल का प्रायश्रित ? . "वर्णी वाणी" प्रथम संस्करण का सम्पादन करते समय मुझे अपने ही जैसे अपने उन विद्यार्थी बन्धुओं और असहाय विधवा बहिनों से मिलने का अवसर मिला ; जिन्हें समाज की इन अगणित संस्थाओं में प्रवेश पा सकने के लिये या अपने उज्वल भविष्य निर्माण के लिये उनकी गरीबी उन्हें अभिशाप थी। विषम परिस्थिति पर विजय पाने का सबसे अच्छा उपाय था विद्यार्थी वन्धु वत्सल पूज्य वर्णीजी से निवेदन करना, इसलियेशिक्षक शिक्षार्थी और शिक्षा संस्थाओं के सम्बन्ध में "पूज्य वर्णीजी से खुला निवेदन" शीर्षक लेख द्वारा वी० २४७३ के जैन-मित्र अंक ३७-३८ में वर्णीजी के समक्ष अपना हार्दिक निवेदन करते हुए परिस्थिति के सुधार हेतु १३ सुझाव रखे। जिससे कि वीसवीं सदी के उन्नतिशील युग के अनुसार संस्कृत के विद्यार्थी भी अपने मानसिक विकाश के लिये निरर्थक पाठ्यक्रम के भार से मुक्त हों और संकुचित दायरे में उन्हें जीवन यापन न करना पड़े अपितु साधन सम्पन्न व्यक्तियों के बालकों की तरह उन्हें भी उन्नतिशील युग के अनुसार आगे बढ़ने के लिये सामयिक शिक्षा क्षेत्र में जाने की सुविधा मिले। मेरा विचार था किं संस्कृत की पढ़ाई तो हो परन्तु वह केवल घुटन्त रूप में न होकर विशुद्ध रूप में हो, साथ ही समय के अनुसार धार्मिक, लौकिक ऐतिहासिक, भौगोलिक, राजनैतिक आदि आवश्यक शिक्षा भी दी जाय जिससे शिक्षार्थी का उद्देश्य अपने उज्वल भविष्य का निर्माण सार्थक हो। वह स्वावलम्बन पूर्वक उभयलोक की साधना कर सके। रखे गये तेरह सुझावों को यदि कार्य रूप में परिणत किया जाता तो निःसन्देह शिक्षक शिक्षार्थी और शिक्षाओं में एक नई जीवन ज्योति
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