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वर्णी-वाणी
हैं - एक दूसरे के सहायक हैं । इन्हीं के आधीन शरीर की रक्षा है, इनकी स्वस्थ्यता में शरीर की स्वस्थ्यता है । प्राचीन समय में इसी अखण्ड ब्रह्मचर्य के बल से मनुष्य बद्धवीर्य उर्ध्वरेता कहे जाते थे ।
८. जिस शक्ति को छात्र वृन्द अहर्निश अध्ययन कार्य में लाते हैं वह मेधा शक्ति भी इसी शक्ति के प्रसाद से बलवती रहती है, इसीके बल से अभ्यास अच्छा होता हैं, इसी के बल से स्मरण शक्ति अद्भुत बनी रहती है । स्वामी अकलङ्कदेव, स्वामी विद्यानन्द, महाकवि तुलसीदास भक्त सूरदास और पण्डित प्रवर तोडरमल की जो विलक्षण प्रतिभा थी वह इसी शक्ति का वरदान था ।
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ε. आजकल माता पिता का ध्यान सन्तान के सुसंस्कारों की रक्षा की ओर नहीं है । धनाढ्य से धनाढ्य भी व्यक्ति अपने बच्चों को जितना अन्य आभूषणों से सज्जित एवं अन्य वस्तुओं से सम्पन्न देखने की इच्छा रखते हैं उतना सदाचारादि जैसे गुणों से विभूषित और शील जैसी सम्पत्ति से सम्पन्न देखने की इच्छा नहीं रखते । प्रत्युत उसके विरुद्ध हो शिक्षा दिलाते हैं जिससे कि सुकुमार मति बालक को सुसंगति की अपेक्षा कुसङ्गति का प्रश्रय मिलता हैं फल स्वरूप वे दुराचरण के जाल में फंस कर नाना प्रकार की कुत्सित चेष्टाओं द्वारा शरीर की संरक्षण शक्ति का ध्वंस कर देते हैं । दुराचार से हमारा तात्पर्य केवल असदाचरण से नहीं है किन्तु १ - आत्मा को विकृत करने वाले नाटकों का देखना, २- कुत्सित गाने सुनना, ३ शृङ्गार वर्धक उपन्यास पढ़ना, ४ वाल विवाह, (छोटे छोटे वर कन्या का विवाह ) ५ वृद्ध विवाह और ७ अनमेल विवाह ( वर
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