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________________ १४३ .. ब्रह्मचर्य घात होता हो । माना कि आजकल के विद्यालयों में वैसे शिक्षक नहीं जिनके अवलोकन मात्रासे शान्ति की उद्भूति हो ! छात्रों पर वह पुत्र प्रम नहीं जिसके कारण छात्रों में गुरु आदेश पर मिटने की भावना हो । और न छात्रों में वह गुरुभक्ति है जिसके नाम पर विद्यार्थी असंभव को संभव कर दिखाते थे। इसका कारण यही था कि पहले के गुरु छात्रों को अपना पुत्र ही समझते थे अपने पुत्र के उज्वल भविष्य निर्माण के लिये जिन संस्कारों और जिस शिक्षा की आवश्यकता समझते थे वही अपने शिष्यों के लिये भी करते थे । परन्तु अब तो पांसे उलटे ही पढ़ने लगे है ! अन्य बातोंको जाने दीजिये शिक्षा में भी पक्षपात होने लगा ! गुरु जी अपने सुपुत्रों को अंग्रेजी पढ़ाना हितकर समझते है तब ( दूसरों के लड़कों ) अपने शिष्यों को संस्कृत पढ़ाते हैं ! भले ही संस्कृत आत्मकल्याण और उभय लोक में सुखकारी है परन्तु इस विषम वातावरण से उस आदर्श संस्कृत भाषा और उन अतोत के आदर्शों पर छात्रों की अश्रद्धा होती जाती है जिनसे वे अपने को योग्य बना सकते हैं। आवश्यक यह है कि गुरु शिष्य पुनः अपने कर्तव्यों का पालन करें जिससे प्रगति शील युग में उन आदर्शों को भी प्रगति हो विद्यालयों के विशाल प्राङ्गणों में ब्रह्मचारी बालक खेलते कूदते नजर आवें और गुरु वर्ग उनके जीवन निर्माता और सच्चे शुभ चिन्तक बनें। ७. ब्रह्मचर्य साधन के लिये व्यायाम द्वारा शरीर के प्रत्येक अङ्ग को पुष्ट और संगठित बनना चाहिये । सादा भोजन और व्यायाम से शरीर ऐसा पुष्ट होता है कि वृद्धावस्था तक सुदृढ़ बना रहता है। जो भोजनहम करते है उसे जठराग्नि पचाती है फिर उसका धातु उत्पत्ति क्रमानुसार रसादि परम्परा से वीर्य बनता है। इस तरह वीर्य और जठराग्नि में परस्पर सम्बन्ध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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