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वर्णी-वाणी
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उनके लिये नाना प्रकार के गुलाब, चमेली, केवड़ा आदि तेलों का संग्रह करता है तथा उसके सरस कोमल, मधुर शब्दों का श्रवण कर अपने को धन्य मानता है और उसके द्वारा संपन्न नाना प्रकार के रसास्वाद को लेता हुआ फूला नहीं समाता है। उसके कोमल अंगोंको स्पर्श कर आत्मीय ब्रह्मचर्य का और बाह्य में शरीर-सौंदर्य का कारण वीर्य का पात होते हुए भी अपने को धन्य मानता है ! इस प्रकार स्त्रीसमागम से ये मोही पंचेन्द्रियों के विषय में मकड़ा के जाल की तरह फँस जाते हैं । इसीलिये ब्रह्मचर्य को असिधारा व्रत, महान् धर्म और महान तप कहा है।
५. धर्म साधन का प्रधान साधन स्वस्थ्य शरीर कहा गया है इसलिये ही नहीं अपितु जीवन के संरक्षण और उसके आदर्श निर्माण के लिये भी जो १ शान्ति, २ कान्ति, ३ स्मृति, ४ ज्ञान ५ निरोगिता जैसे गुण आवश्यक है उनकी प्राति के लिये ब्रह्मचर्य का पालन नितान्तावश्यक है।
६. यह कहते हुए लज्जा आती है, हृदय दुःख से द्रवीभूत हो जाता है कि जिस अद्भुत बीर्य शक्ति के द्वारा हमारे पूर्वजों ने लौकिक और पारमार्थिक कार्य कर संसार के संरक्षण का भार उठाया था आजकल उस अमूल्य शक्ति का बहुत ही निर्विचार के साथ ध्वंस किया जा रहा है । आजसे १००० वर्ष पहिले इसकी रक्षा का बहुत ही सुगम उपाय था-ब्रह्मचर्य को पालन करते हुए बालक गण गुरुकुलों में वास कर विद्योपार्जन करते थे । आज की तरह उन दिनों चमक दमक प्रधान विद्यालय न थे और न आज जैसा यह बातावरण ही था। उन्नति का जहां तक प्रश्न है प्रगतिशीलता साधक है परन्तु वह प्रगति शीलता खटकने वाली है. जिससे रागकी वृद्धि और आत्माका
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