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ब्रह्मचर्य
में बीर्य शक्ति ही सर्व श्रेष्ठ शक्ति है, वही हमारे शरीर का राजा है । जिस तरह राजा के बिना राज्य में नाना प्रकार के अन्याय मार्गों का प्रसार होने से राज्य निरर्थक हो जाता है उसी तरह इस शरीर में इस वीर्य शक्ति के बिना शरीर निस्तेज हो जाता है, नाना प्रकार के रोगों का आराम गृह बन जाता है। अतः इस अमूल्य शक्ति के संरक्षण की ओर जिनका ध्यान नहीं वे न तो लौकिक कार्य करने में समर्थ हो सकते हैं और न पारसार्थिक कार्य करने में समर्थ हो सकते हैं।
४. ब्रह्मचर्य संरक्षण के लिए न केवल विषय भोग का निरोध आवश्यक है अपि तु तद्विषयक वासनाओं और साधन सामग्री का निरोध भी आवश्यक है । १ अपने राग के विषय भूत स्त्री पुरुष का स्मरण करना, २ उनके गुणों को प्रशंसा करना, ३ साथ में खेलना, ४ विशेष अभिप्राय से देखना, ५ लुक छिपकर एकान्त में वार्तालाप करना, ६विषय सेवन का विचार और ७ तद्विषयक अध्यवसाय ब्रह्मचर्य के घातक होने से विषय सेवन के सहश ही हैं। इसीलिये आचार्यों ने ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले को स्त्रियों के सम्पर्क से दूर रहने का आदेश दिया है। यहां तक कि स्त्री समागम को ही संसार-वृद्धि का मूल करण कहा है क्योंकि स्त्री-समागम होते ही पांचों इन्द्रियों के विषय स्वयमेव पुष्ट होने लगते हैं । प्रथम तो उसके रूप को निरंतर देखने की अभिलाषा बनी रहती है। वह निरंतर सुन्दर रूप वाली बनी रहे, इसके लिये अनेक प्रकार के उपटन, तेल आदि पदार्थों के संग्रह में व्यस्त रहता है । उसका शरीर पसेव आदि से दुर्गन्धित न हो जाय, अतः निरंतर चन्दन, तेल इत्र आदि बहुमूल्य वस्तुओं का संग्रह कर उस पुतली की सम्हाल में संलग्न रहता है । उसके केश निरंतर लंबायमान रहें अतः
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