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वी-वाणी
सामान्य परिस्थिति वालोंके हैं उनकी यह धारणा होती है कि संस्कृत विद्या पढ़ने से कुछ लौकिक वैभव तो मिलता नहीं, पारलौकिक की आशा तब की जावे जब कुछ धनार्जन हो, अतः वे बालक भी संस्कृत पढ़ने से उदास हो जाते हैं । रहे धनाढ्यों के बालक सो उन के अभिभावकों के विचार ही ये रहते हैं कि हमको पण्डित थोड़े ही बनाना है जो हमारे बालक संस्कृत पढ़ने के लिये दर दर भटकें । हमारे ऊपर जब धन की कृपा है तब अनायास बीसों पण्डित हमारे यहां आते ही रहेंगे अतः वे भी वही अर्थकरी विद्या (अंग्रेजी) पढ़ाकर बालकों को दुकान दारी के धन्धे में लगा देते हैं । इस तरह आज कल पाश्चात्य विद्याकी तरफ ही लोगों का ध्यान है और जो आत्मकल्याण की साधक संस्कृत और प्राकृत विद्या है उस ओर समाज का लक्ष्य नहीं। परन्तु छात्रों को इससे हताश नहीं होना चाहिये । यह सत्य है कि लोकिक सुखों के लिये पाश्चात्य विद्या (अंग्रेजी) का अभ्यास करके अनेक यत्नों से धनार्जन कर सकते हैं परन्तु लौकिक सुख स्थायी नहीं, नश्वर हैं अनेक आकुलताओं का घर हैं । इसलिये विद्यार्थियोंका कर्तव्य है कि वे प्राचीन संस्कृत पिया के पारगामी पण्डित बनाकर जनताके समक्ष वास्तविक तत्व के स्वरूपको रखें।
छात्र जीवन को सफल बनाने के लिये ये वातें ध्यान देने योग्य हैं
१. परोपकार के अन्तस्तल में यदि स्वोपकार निहित नहीं तब वह परोपकार निर्जीव है। विद्यार्थीका स्वोपकार उसका अध्ययन है अतः सर्व प्रथम उसी की ओर ध्यान देना चाहिये । हमें प्रसन्नता इसी बात में होगी कि विद्यार्थी बीच में अपना पठन-पाठन न छोड़े, जिस विषय को प्रारम्भ करें गम्भीरता के
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