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वर्णी-वाणी
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पद को बाधक है । क्योंकि कषाय के सद्भाव में जब आत्मा कलुषित हो जाती है तब मद्यपायी की तरह नाना प्रकार की विपरीत चेष्टाओं द्वारा अनन्त संसार की यातनाओं का ही भोक्ता रहती है और जब कषायों की निर्मूलता हो जाती है तब आत्मा अनायास अपने स्वाभाविक पद की स्वामिनी हो जाती है । अतः समाधिमरण के लिए जो औदयिक रागादिक हों उनमें आत्मीय बुद्धि न होना यही अर्थ कषाय की कृशता का है । केवल कषायों को कृशता ही उपयोगिनी हैं
६. समाधिमरण करने वालों को बाह्य कारणों को गौड़ कर केवल रागादिक की कृशता पर निरन्तर उद्यत रहना श्रेयस्कर है ।
७. समाधिमरण के समय प्रज्ञा होना आवश्यक है क्योंकि प्रज्ञा एक ऐसी प्रबल छेनी है कि जिसके पड़ते ही बन्ध और आत्मा जुदे जुड़े हो जाते हैं - आत्मा और अनात्मा का ज्ञान कराना प्रज्ञा के अधीन हैं। जब आत्मा और अनात्मा का ज्ञान होगा तब ही तो मोक्ष हो सकेगा । परन्तु इस प्रज्ञा रूपी देवी का प्रयोग बड़ी सावधानी के साथ करना चाहिए | निज का अंश छूटकर पर में न मिल जाय और पर का अंश निज में न रह जाय-यही सावधानी का तात्पर्य है । समाधिमरण के सन्मुख व्यक्ति को शरीर से ममत्व और पर पदार्थों से आत्मीयता का भाव दूर कराकर सद्गति की कामना के लिये उसे सदा इन बातों का स्मरण दिलाते रहना चाहिये
" धन धान्यादिक जुड़े हैं, स्त्री पुत्रादिक जुदे हैं, शरीर जुदा है, रागादिक भाव कर्म जुदे हैं, द्रव्य कर्म जुड़े हैं, मतिज्ञानादि औपशमिक ज्ञान जुदे हैं - यहाँ तक कि ज्ञान में
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