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समाधिमरण प्रतिबिम्बित होनेवाले ज्ञेय के आकार भी जुदे हैं। इस प्रकार स्वलक्षण के बल से भेद करते करते अन्त में जो शुद्ध चैतन्य भाव बाकी रह जाता है वही निज का अंश है, वही उपादेय है, उसी में स्थिर हो जाना मोक्ष है। प्रज्ञा के द्वारा जिसका ग्रहण होता है वही चैतन्य रूप “मैं” हूँ। इसके सिवाय अन्य जितने भाव हैं निश्चय से वे पर द्रव्य हैं-पर पदार्थ हैं। आत्मा ज्ञाता है दृष्टा है। वास्तव में ज्ञाता दृष्टा होना ही आत्मा का स्वभाव है पर इसके साथ जो मोह की पुट लग जाती है वही समस्त दुःखों का मूल है। अन्य कर्म के उदय से तो आत्मा का गुण रुक जाता है पर मोह का उदय इसे विपरीत परिणमा देता है । अभी केवलज्ञानावरण का उदय है उसके फल स्वरूप केवल ज्ञान प्रकट नहीं हो रहा है परन्तु मिथ्यात्व के उदय से आत्मा का आस्तिक्य गुण अन्यथा रूप परिणम रहा है । आत्मा का गुण रुक जाय इससे हानि नहीं पर मिथ्या रूप हो जाने में महान हानि है। ____ एक आदमी को पश्चिम की ओर जाना था कुछ दूर चलने पर उसे दिशा-भ्रान्ति हो गई, वह पूर्व क पश्चिम समझकर चलता जा रहा है उसके चलने में बाधा नहीं आई पर ज्यों-ज्यों चलता जाता है त्यों-त्यों अपने लक्ष्य स्थान से दूर होता जाता है ।
एक आदमी को दिशा भ्रान्ति तो नहीं हुई पर पैर में लकवा मार गया इससे चलते नहीं बनता। वह अचल होकर एक स्थान पर बैठा रहता है, पर अपने लक्ष्य का बोध होने से वह उससे दूर तो नहीं हुआ-कालान्तर में ठीक होने से शीघ्र ही ठिकाने पर पहुँच जायगा ।
“एक आदमी को आँख में कामला रोग हो गया जिससे उसका देखना बन्द तो नहीं हुआ, देखता है पर सभी वस्तुएँ
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