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समाधिमरण
१. समाधि निस्पृह पुरुषों के तो निरन्तर रहती है परन्तु जन्म से जन्मान्तर होने का ही नाम मरण है, और जहाँ साम्यभाव से प्राण विसर्जन होता है उसे समाधिमरण कहते हैं।
२. समाधिमरण के लिये प्रायः निर्मल निमित होने चाहिए।
३. जिनका उत्तम भविष्य है उनको घोर उपसर्ग आदि ( समाधिमरण के विरुद्ध प्रबल कारणों) के उपस्थित होने पर भी उत्तम गति हुई। इसलिए निमित्त कारणों के ही जाल र फंसा रहना अच्छा नहीं।
४. समाधिमरण के लिये आत्मपरिणामों को निर्मल करने में यह अपना पुरुषार्थ लगा देना चाहिए क्योंकि जिन जीवों के निरन्तर निर्मल परिणाम रहते हैं वे नियम से सद्गति के पात्र होते हैं।
५. समाधि के लिये प्राचार्यों की आना है कि काय को कृश करने से पहिले कषाय को कृश करो, क्योंकि काय पर द्रव्य है उनकी कृशता और पुष्टता न तो समाधिमरण में साधक है न बाधक है। जबकि कषाय अनादिकाल स्ने स्वभाविक
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