________________
१२१
स्वोपकार और परोपकार
५. आचार्य यह सोचकर कि लोगों को तत्त्वज्ञान का लाभ हो, शास्त्र की रचना करते हैं और उससे जीवों को तत्वज्ञान भी होता है; किन्तु यथार्थ दृष्टि से विचार करो तो आचार्य ने यह कार्य पर के लिये नहीं किया अपितु संज्वलन कषाय के उदय में उत्पन्न हुई वेदना के प्रतीकार के लिये ही उनका यह प्रयास हुआ। पर को तत्त्वज्ञान हो यह व्यवहार है। उस कषाय में ऐसा ही होता है । ऐसे शुभ कार्य भी अपने उपकार के हेतु होते हैं पर के उपकार के हेतु नहीं।
व्यवहार नय से
६. व्यवहार नय से परोपकार माना जाता है अतः परोपकार को तो मिथ्याइष्टि भी कर सकता है बल्कि यों कहिए परोपकार तो मिथ्यादृष्टि से ही होता है। सम्यग्दृष्टि से परोपकार हो जावे यह दूसरी बात है परन्तु उसके आशय में उसकी उपादेयता नहीं। क्योंकि औदयिक भावों का सम्यग्दृष्टि अभिप्राय से कर्ता नहीं, क्योंकि वे भाव अनात्मक हैं।
७. मनुष्य उपकार कर सकता है परन्तु जब तक अपने को नहीं समझा पर का उपकार नहीं कर सकता।
८. परोपकार की अपेक्षा स्वोपकार करनेवाला व्यक्ति जगत का अधिक उपकार कर सकता है। ____६. संसार की विडम्बना को देखो, सब स्वार्थ के साथी हैं। परन्तु धर्मबुद्धि से जो पर का उपकार करोगे वही साथ जावेगा।
१०. “परोपकार से बढ़कर पुण्य नहीं" इसका यही अर्थ है कि निजत्व की रक्षा करो।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org