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________________ वर्णी-वाणी ११८ आक्रमण किया, धन और धर्म लूटा! मंदिर और मूर्तियों का ध्वंस कर अगणित रत्नराशि और अपरमित स्वर्ण चांदी लूटी !! परन्तु जब इतने पर भी लोभ का संवरण नहीं हुआ तब सोमनाथ मंदिर के काठ के किवाड़ और पत्थर के खम्भे भी न छोड़े, ऊँटों पर लाद कर गजनी ले गया !!! दूसरा लोभी था (ईशवी सन् के ३२७ वर्ष पूर्व ) ग्रीसका बादशाद सिकन्दर; जिसने अनेक देशों को परास्तकर उनकी अतुल सम्पत्ति लूटी, फिर भी सारे संसार को विजित करके संसार भर की सम्पत्ति हथयाने की लालसा बनी रही ! लोभ के कारण दोनों का अन्त समय दयनीय दशा में व्यतीत हुआ । लालच और लोभवश हाय ! हाय !! करते मरे, पर इतने समर्थ शासक होते हुए भी एक फूटी कौड़ी भी साथ न ले जा सके। दया का क्षेत्र । प्रथम तो दया का क्षेत्र १-अपनी आत्मा है, अतः उसे संसारवर्धक दुष्ट विकल्पों से बचाते रहना, और सम्यग्दर्शनादि दान द्वारा सन्मार्ग में लाने का उद्योग करते रहना चाहिये । दूसरे दया का क्षेत्र २-अपना निज घर है फिर ३-जाति ४-देश तथा ५-जगत है। अन्त में जाकर यही “वसुधैव कुटुम्बकम" हो जाता है। अनुरोध। इस पद्धति के अनुकूल जो मनुष्य स्वपरहित के निमित्त दान देते हैं वही मनुष्य साक्षात् या परम्परा अतीन्द्रिय अनुपम सुखके भोक्ता होते हैं । अतएव आत्म हितैषी महाशयों का कर्तव्य है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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