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________________ ११७ दान परन्तु यह दान ऐसा अनुपम और महत्वशाली है कि एक बार भी यदि इसका सम्पर्क हो जावे तो प्राणी जन्म-मरण के क्लेशों से विमुक्त होकर निर्वाण के नित्य आनन्द सुखों का पात्र हो जाता है। अतएव सभी दानों की अपेक्षा इस दान की परमावश्यकता है। धर्मदान ही एक ऐसा दान है जो प्राणियों को संसार दुःख से सदा के लिये मुक्तकर सच्चे सुख का अनुभव कराता है। अपनी आत्मताड़ना की परवाह न करके दूसरों के लिये मीठे स्वर सुनानेवाले मृदङ्ग की तरह जो अपने अनेक कष्टों की परवाह न कर विश्वहित के लिये निरपेक्ष निस्वार्थ उपदेश देते हैं वे महात्मा भी इसी धर्मदान के कारण जगत-पूज्य या विश्ववन्ध हुए हैं। इस तरह धर्मदान की महत्ता जानकर हमें उस दान को प्राप्त करने का पात्र होना चाहिये । सिंहनी का दूध स्वर्ण के पात्र में रह सकता है, धर्मदान सम्यग्ज्ञानी पात्र में रह सकता है। पाप का बाप लोभ । परन्तु मनुष्य लोभ के आवेग में आकर किन-किन नीच कृत्यों को नहीं करते ? और कौन कौन से दुःखों को भोग कर दुर्गति के पात्र नहीं होते ? यह उन एक दो ऐतिहासिक व्यक्तियों के जीवन से स्पष्ट हो जाता है । जिनका नाम इतिहास के काले पृष्ठों में लिखा रह जाता है। गजनी के शासक, लालची लुटेरे महमूद गजनवी ने ई०सन् १००० और १०२६ के बीच २६ वर्ष में भारतवर्ष पर १७ वार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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