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________________ वर्णी-वाणी ११६ किन्तु संसार में उनका श्राज कुछ भी अवशिष्ट नहीं है तथा तीर्थङ्कर महाराज ने जो उपदेश द्वारा दान दिया था उसके द्वारा बहुत से जीव तो उसी भव से मुक्ति लाभ कर चुके और अब तक भी अनेक प्राणी उनके बताये सन्मार्ग पर चलकर लाभ उठा रहे हैं। वे भव-बन्धन परम्परा के पाश से मुक्त हो गये, तथा आगामीकाल में भी उस सुपथ पर चलनेवाले उस अनुपम सुख का लाभ उठावेंगे। कितने प्राणी उस पवित्र धर्मोपदेश से लाभ उठावेंगे यह कोई अल्पज्ञानी नहीं कह सकता। धर्मदान के वर्तमान दाता वर्तमान में (गणधर, आचार्य आदि परम्परा से ) यह दान देने की योग्यता संसार से भयभीत, बाह्याभ्यन्तर परिग्रह विहीन, ज्ञान-ध्यान-तप में आसक्त, वीतराग, दिगम्बर मुनिराज के ही है। क्योंकि जब हम स्वयं विषय कषायों से दग्ध हैं तब इस दान को कैसे करेंगे ? जो वस्तु अपने पास होती है वही दान दी जा सकती है। हम लोगों ने तो उस धर्म को जो कि आत्मा को निज परणति है कषायाग्नि से दग्ध कर रक्खा है। यदि वह वस्तु आज हमारे पास होती तब हम लोग दुःखों के पात्र न होते । उसके बिना ही आज संसार में हमारी अवस्था कष्टप्रद हो रही है। उस धर्म के धारक परम दिगम्बर निरपेक्ष परोपकारी, विश्वहितैषी वीतराग ही हैं अतएव वही इस दान को कर सकते हैं। इसी से उसे गृहस्थदान के अन्तर्गत नहीं लिया। धर्मदान की महत्ता .. यह दान सभी दानों में श्रेष्ठतम है, क्योंकि इतरदानों के द्वारा प्राणी कुछ काल के लिये दुःख से विमुक्त-सा हो जाता है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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