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________________ ११५ ८. जो धर्म में दृढ़ हों उन्हें बढ़तम करना । ६. किसी के ऊपर मिथ्या कलङ्क का आरोप न करना । १०. निमित्तानुसार यदि किसी से किसी प्रकार का अपराध बन गया हो तो उसे प्रकट न करना अपितु दोषो व्यक्ति को सन्मार्ग पर लाने की चेष्टा करना । दान ११. मनुष्य को निर्भय बनाना । संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि जितनी मनुष्य की आवश्यकताएँ हैं उतने ही प्रकार के दान हो सकते हैं । दुःख का अपहरण कर उच्चतम भावना प्राप्त करने का सुलभ मार्ग यदि है तो वह दान ही है अतः जहाँ तक बने दुखियों का दुख दूर करने के लिये सतत प्रयत्नशील रहो, हित मित प्रिय वचनों के साथ यथाशक्ति मुक्त हस्त से दान दो । धर्मदान जब तक प्राणी को धार्मिक शिक्षा नहीं मिलती तब तक उसके उच्चतम विचार नहीं होते, और उन विचारों के अभाव में वह प्राणी उस शुभाचरण से दूर रहता है जिसके बिना यह लोकिक सुख से भी वञ्चित रहकर धोबी के कुत्ते की तरह “घर का न घाट का " कहीं का भी नहीं रहता । क्योंकि यह सिद्धान्त है कि "वे ही जीव सुखी रह सकते हैं जो या तो नितान्त मूर्ख हों, या पारङ्गत दिग्गज विद्वान हों ।" अतः धर्मदान सभी दानों से श्रेष्ठ और नितान्तावश्यक है । इस परमोत्कृष्ट दान के प्रमुख दानी तीर्थङ्कर महाराज तथा धरादि देव हैं। इसीलिये आप्त के विशेषणों में "मोक्षमार्ग के नेता" यह विशेषण प्रथम दिया गया है। बड़े-बड़े राजा, महाराजा, यहाँ तक कि चक्रवर्तियों ने भी बड़े-बड़े दान दिये Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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