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________________ वर्णी-वाणी ११२ दान के भेद आचार्यों ने गृहस्थों के दान के संक्षेप में चार भेद बतलाये हैं १ आहारदान, २ औषधिदान, ३ ज्ञानदान, और ४ अभयदान । परन्तु ५ लौकिकदान और ६ आध्यात्मिक दान भी गृहस्थों का ही कर्तव्य है । ७ वांधर्मदान मुनियों का दान है। इस तरह दान के ७ भेद प्रमुख रूप से होते हैं। आहारदान ___ जो मनुष्य क्षुधासे क्षामकुक्षि एवं जर्जर हो रहा है तथा रोग से पीडित है सर्व प्रथम उसके क्षुधा आदि रोगोंको भोजन और औषधि देकर निवृत्त करना चाहिए । आवश्यकता इसी बात की है। क्योंकि “बुभुक्षितः किं न करोति पापम्” ( भूखा आदमी कौनसा पाप नहीं करता ) इसीसे नीतिकारों ने "शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्” (शरीर को धर्मसाधन का प्रमुख साधन ) कहा है। औषधिदान "स्वस्थचित्ते बुद्धयः प्रस्फुरन्ति” शरीरके नीरोग रहने पर बुद्धिका विकाश होता है; तथा ज्ञान और धर्मके अर्जन का यत्न होता है। शरीरके नीरोग न रहनेपर विद्या और धर्मकी रुचि मन्द पड़ जाती है अतएव अन्न-जल और औषधि द्वारा दुःखसे दुःखी प्राणियोंके दुःखका अपहरण करके उन्हें ज्ञानादि के अभ्यास में लगानेका यत्न प्रत्येक प्राणीका मुख्य कर्तव्य होना चाहिए। जिससे ज्ञान द्वारा यथार्थवस्तुको जान कर प्राणी इस संसारके जालमें न फँसे । ज्ञानदान अन्नदानकी अपेक्षा विद्यादान अत्यन्त उत्तम है क्योंकि अन्न Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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