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________________ १०९ दान हुए भी जिनके अहम्बुद्धिका लेश नहीं वे सम्यक्दानी हैं और वही संसार सागरसे पार होते हैं, क्योंकि निष्काम (निस्वार्थ) किया गया कार्य बन्धका कारण नहीं होता। अथवा यों कहना चाहिए कि जो सर्वोत्तम मनुष्य हैं वे बिना स्वार्थ ही दूसरे का उपकार किया करते हैं। और अपने उन विशुद्ध परिणामों के बल से सर्वोत्तम पद के भोक्ता होते हैं। जैसे प्रखर सूर्यको किरणों से सन्ता जगत को शीतांशु (चन्द्रमा) अपनो किरणों द्वारा निरपेक्ष शीतल कर देता है, उसी प्रकार महान पुरुषों का स्वभाव है कि वे संसार-ताप से संतप्त प्राणियों के ताप को हरण कर लेते हैं। मध्यदाता जो पराये दुःखको दूर करने के लिये अपने स्वार्थ की रक्षा करते हुए दान करते हैं वे मध्यम दाता है। क्योंकि जहाँ इनके स्वार्थमें बाधा पहुँचती है वहींपर यह परोपकारके कार्यको त्याग देते हैं । अतः इनके भी वास्तविक दयाका विकास नहीं होता। धनको ममता अत्यन्त प्रबल है, धनको त्यागना सरल नहीं हैं, अतः ये यद्यपि अपनी कीर्ति के लिये ही धनका व्यय करते हैं तो भी जब उससे दूसरे प्राणियोंका दुःख दूर होता है तो इस अपेक्षासे इनके दानको मध्यम कहने में कोई संकोच नहीं होता। जघन्य दाता जो मनुष्य केवल प्रतिष्ठा और कीर्तिके लालचसे दान करते हैं वे जघन्य दाता हैं। दानका फल लोभके निरशन द्वारा शान्ति प्राप्त करना है, वह इन दातारोंको नहीं मिलती । क्योंकि दान देनेसे शान्तिके प्रतिबन्धक आभ्यन्तर लोभादि कषायका जब अभाव होता है तभी आत्मामें शान्ति मिलती है। जो कीर्ति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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