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सच्ची प्रभावना
३. प्रभावना अंग की महिमा अपार है। परन्तु हमलोग उसपर लक्ष्य नहीं देते । एक मेले में लाखों रुपये व्यय कर देंगे, परन्तु यह न होगा कि एक ऐसा कार्य करें जिससे सर्व साधारण लाभ उठा सकें।
४. पहले समय में मुनिमार्ग का प्रसार था, अतः गृहस्थ लोग जब संसार से विरक्त हो जाते थे, और उनकी गृहिणी (धर्म पत्नी) आर्या ( साध्वी) हो जाती थी, तब उनका परिग्रह शेष लोगों के उपयोग में आता था, परन्तु आज मरते मरते भोगों से उदास नहीं होते ! कहाँ से उन्हें आनन्द का अनुभव आवे ? मरते मरते यही शब्द सुने जाते हैं कि ये बालक आप लोगों को गोद में हैं, इन्हें सम्भालना, रक्षा करना, आदि। यह दुरवस्था समाज को हो रही है। तथा जिनके पास पुष्कल धन है वे अपनी इच्छा के प्रतिकूल एक पैसा भी खर्च नहीं करना चाहते । वास्तव में धर्म को प्रभावना करना चाहते हो तो जातीय पक्षपात को छोड़कर प्राणी मात्र का उपकार करो। क्योंकि धर्म किसी जाति विशेष का पैतृक विभव नहीं अपितु प्राणीमात्र का स्वभाव धर्म है । अतः जिन्हें धर्म की प्रभावना करना इष्ट है, उन्हें उचित है कि प्राणी मात्र के ऊपर दया करें, अहम्बुद्धि ममबुद्धि को तिलाञ्जलि दें, तभी धर्म की प्रभावना हो सकती है।
५. सच्ची प्रभावना तो यह है कि जो अपनी परणति अनादि काल से पर को आत्मीय मान कलुषित हो रही है, पर में निजत्व का अवबोधकर विपर्ययज्ञानवाली हो रही है, तथा पर पदार्थों में राग द्वेष कर मिथ्याचारित्रमयी हो रही है. उसे आत्मीय श्रद्धान ज्ञान और चरित्र के द्वारा ऐसी निर्मल बनाने
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