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सच्ची प्रभावना १. वास्तव में धर्म की प्रभावना तो आचरण से ही होती है । यदि हमारी प्रवृत्ति परोपकार रूप है तब अनायास लोग उसकी प्रशंसा करेंगे, और यदि हमारी प्रवृत्ति और आचार मलिन है तब उनकी श्रद्धा इस धर्म में नहीं हो सकती।
२. निरन्तर रत्नत्रय तेज के द्वारा आत्मा प्रभावना सहित करने योग्य है । तथा दान, तप, जिनपूजा, विद्याभ्यास आदि चमत्कारों से धर्म की प्रभावना करनी चाहिए । इसका तात्पर्य यह है कि संसारी जीव अनादि काल से अज्ञानान्धकार से आच्छन्न हैं, उन्हें आत्मतत्त्व का ज्ञान नहीं, शरीर को ही आत्मा मान रहे हैं, निरन्तर उसी के पोषण में उपयोग लगा रहे हैं, तथा उसके जो अनुकूल हुआ उसमें राग, और जो प्रतिकूल हुआ उसमें द्वेष करने लग जाते हैं। श्रद्धा के अनुकूल ही ज्ञान और चारित्र होता है, अतः सर्व प्रयत्नों द्वारा प्रथम श्रद्धाको ही निर्मल करना चाहिये । उसके निर्मल होने पर ज्ञान और चारित्र का भी प्रदुर्भाव होने से तीनों गुणों का पूर्ण विकास हो जाता है । इसी का नाम रत्नत्रय है, यही मोक्ष मार्ग है और यही आत्मा की निज विभूति है । जिसके यह विभूति हो जाती है वह संसार के बन्धन से छूट जाता है, यही निश्चय प्रभावना है। इसकी महिमा वचन के द्वारा नहीं कही जा सकती।
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