________________
पुरुषार्थ
कथा और शास्त्रस्वाध्याय से ही ये दूर नहीं हो सकते । आवश्यक यह है कि पर वस्तु में इष्टानिष्ट कल्पना न होने दो । यही रागद्वेष दूर करने का सच्चा पुरुषार्थ है।
८. कषायों के उदय वश प्राणी नाना कार्य करते हैं किन्तु पुरुषार्थ ऐसी तीक्ष्ण खड्गधार है जो उदयजन्य रागादिकों की सन्तति को ही निर्मूल कर देती है।
६. स्वयं अर्जित ‘रागद्वेष की उत्पत्ति को हम नहीं रोक सकते परन्तु उदय में आये रागादिकों द्वारा हर्ष विषाद न करें यह हमारे पुरुषार्थ का कार्य है।
१०. संज्ञी पञ्चेन्द्रिय होने को सुख्यता इसीमें है कि वह पुरुषार्थ द्वारा आत्मकल्याण करे ।
११. अभिप्राय में मलिनता न होना ही सच्च पुरुषार्थ है।
१२. लौकिक पुरुषार्थ पुरुषार्थ नहीं । वह तो कर्म बन्धका कारण है । सच्चा पुरुषार्थ तो वह है जिससे राग द्वेष की निवृत्ति हो जाती है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org