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पुरुषार्थ
१. पुरुषार्थ से मुक्ति लाभ होता है।
२. बाह्य क्रियायों का आचरण करते हुए अभ्यन्तर को ओर दृष्टि रखना ही प्रथम पुरुषार्थ है। . ३. पुरुषार्थी वही है जिसने राग द्वेष को नष्ट करने के लिये विवेक प्राप्त कर लिया है।
४. घर छोड़कर तीर्थ स्थान में रहने में पुरुषार्थ नहीं, पण्डित महानुभावों की तरह ज्ञानार्जनकर जनता को उपदेश देकर सुमार्ग में लगाना पुरुषार्थ नहीं, दिगम्बरवेष भी पुरुषार्थ नहीं । सच्चा पुरुषार्थ तो वह है कि उदय के अनुसार जो रागादिक हों वे हमारे ज्ञान में तो आवें और उनकी प्रवृति भी हममें हो, किन्तु हम उन्हें कर्मज भाव समझ कर इष्टानिष्ट कल्पना से अपनी आत्मा की रक्षा कर सकें।
५. पुरुषार्थ करना है तो उपयोग को निरन्तर निर्मल करने का पुरुषार्थ करो।
६. यदि पुरुषार्थ का उपयोग करना है तो क्रमशः कर्म अटवी को दग्ध करने में उसका उपयोग करो ।
७. राग द्वेष को बुद्धिपूर्वक जीतने का प्रयत्न करो, केवल
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