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________________ वर्णी-वाणी परणतिका ज्ञान होना ही मानता हूँ । यदि आत्मीय परणति की प्रतीति न हुई तब यह सब विडम्बना मात्र है । ३. सामायिक का यही तात्पर्य है कि मेरे नियम के अनु सार यावत् सामायिक का काल है तावत् मैं साम्यभाव से रहूँगा । और इसका भी यही अर्थ है कि सामायिक के समय में कषायों की पीड़ा से बचूँ । ८६ ४. देव पूजा स्वाध्यायादि जो क्रिया है उसका भी यही तात्पर्य है कि अपनी परणति को अशुभोपयोग की कलुषता से रक्षित रखा जाय । ५. वन्दना ( तीर्थयात्रा ) का अर्थ अन्तरङ्ग निर्मलता है । जहाँ परिणामों में संक्लेशता हो जावे वहाँ यात्रा का तात्त्विक लाभ नहीं । ६. शुभोपयोग को ज्ञानी कब चाहता है ? यदि उसे शुभो - पयोग इष्ट होता तो उसमें उपादेय बुद्धि होती ? वह तो निरन्तर यह चाहता है कि हे प्रभो ! कब ऐसा दिन आवे जब आपके सदृश दिव्यज्ञान को पाकर स्वच्छन्द मोक्षमार्ग में विचरूँ । ७. भगवान् के दर्शन कर यही भाव होता है कि हे प्रभो ! आप वीतराग सर्वज्ञ हैं, जानते सब हैं परन्तु वीतराग होने से चाहे आपका भक्त हो चाहे अभक्त हो, आपके न राग होता है न द्वेष । जो जीव आपके गुणों में अनुरागी हैं उनके स्वयमेव शुभ परिणामों का सञ्चार हो जाता है और वे परिणाम ही पुण्यबन्ध में कारण होते हैं । ८. प्रभो ! मैं दीनता से कुछ वरदान की याचना नहीं कहता "रागद्वेषयोरप्रणिधानमुत्पेक्षा" आप राग द्वेष से रहित हैं अतः Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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