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भक्ति
१. पञ्च परमेष्ठी का स्मरण इस लिये नहीं हैं कि हम एक माला फेर कर कृतकृत्य हो जायें । किन्तु उसका यह प्रयोजन है कि हम यह जान लें कि आत्मा के ही ये पाँच प्रकार के परिणमन हैं । उसमें सिद्धपर्याय तो अन्तिम अवस्था है । यह वह अवस्था है जिसका फिर अन्त नहीं होता। शेष चार पर्यायें औदारिक शरीर के सम्बन्ध से मनुष्यपर्याय में होती हैं। उनमें से अरहन्त भगवान तो परम गुरु हैं जिनकी दिव्यध्वनि से संसार आताप के शान्त होने का उपदेश जीवों को मिलता है और तीन पद साधक है, ये सब आत्मा की ही पर्याय हैं । उनके स्मरण से हमारी आत्मा में यह ज्ञान होता है-"यह योग्यता हमारी आत्मा में है, हमें भी यही उद्यम कर चरम अवस्था का पात्र होना चाहिए । लौकिक राज्य जब पुरुषार्थ से मिलता है तब मुक्तिसाम्राज्य का लाभ अनायास हो जाये यह कैसे हो सकता है।"लोक में कहावत है-"बिन मांगे मोती मिले मांगे मिले न भीख" अतः अरहन्तादि परमेष्ठी से भिक्षा माँगने से हम संसारबन्धन से नहीं छूट सकते । जिन उपायों को श्री गुरु ने दर्शाया है उनके साधन से अवश्यमेव वह पद अनयास प्राप्त हो जावेगा।
२. देव दर्शन और शास्त्र स्वाध्याय का फल मैं तो आत्मीय
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