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- भक्तिः
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उपेक्षक हैं । जिनके रागद्वेष नहीं उनको किसोको भलाई करने की बुद्धि ही नहीं हो सकती अतः उनकी भक्ति से कोई लाभ नहीं, ऐसा जो श्रद्धान है वह ठीक नहीं क्योंकि जो छाया में वृक्ष के नीचे बैठ जाता है । उसको इसकी आवश्यकता नहीं कि वृक्ष से छाया को याचना करे । वृक्ष के नीचे बैठने से छाया का लाभ अपने आप हो जाता है। इसी प्रकार जो रुचिपूर्वक श्री अरहन्तदेव के गुणों का स्मरण करता है उसके मन्द कषाय होने से शुभोपयोग स्वयमेव हो जाता है और उसके प्रभाव से शान्ति का लाभ भी स्वयं हो जाता है, ऐसा स्वयं निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध बन रहा है । परन्तु व्यवहार ऐसा होता है कि वृक्ष की छाया है। परन्तु छाया वृक्ष की नहीं होती किन्तु सूर्य की किरणों का वृक्ष के द्वारा रोध होने से वृक्षतल में स्वयमेव छाया हो जाती है । एवं श्रीमद्देवाधिदेव के गुणों का रुचिपूर्वक स्मरण करने से स्वयमेव जीवों के शुभ परिणामों को उत्पत्ति होती है । फिर भी व्यवहार से ऐसा कथन होता है कि भगवान् ने हमारे शुभ परिणाम कर दिये। ___६. हे भवगन् ! जो आपके गुणों का अनुरागी है वह पुण्यबन्ध नहीं चाहता, क्योंकि पुण्यबन्ध भी संसार का कारण है और ज्ञानी जीव संसार के कारणरूप भावों को उपादेय नहीं मानता । केवल अज्ञानी जीव ही भक्ति को सर्वस्व मान उसमें तल्लीन हो जाते हैं क्योंकि उसके आगे उन्हें और कुछ सूझता ही नहीं । जब ज्ञानी जीव श्रेणी चढ़ने में समर्थ नहीं होता तब जो मोक्षमार्ग के पात्र नहीं उनमें तीव्र संगज्वर का अपगम करने के लिये श्री अरहन्तादि की भक्ति करता है। श्री अरहन्त के गुणों में अनुराग होना यही तो भक्ति है । वीतरागता, सर्वज्ञता और मोतमाग का नेतापन यही अरहन्त के गुण हैं । इनमें अनुराग
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