________________
वर्णी-वाणी
है, अतः हमारी जो श्रद्धा है कि हमारा जीवन दुःख मय है, कण्टकाकोर्ण है उसी को परिवर्तित करने की आवश्यकता है।
१६. पर के उपदेश से आत्म शान्ति नहीं मिलती परोपकार भी आत्मशान्ति का उपाय नहीं । उसका मूल उपाय तो कायरता का त्याग करना, उत्साह पूर्वक मार्ग में लगना और संलग्नता पूर्वक यत्न करना है।
१७. अविरत अवस्था में वीतराग भावों की शान्ति को अनुभव करने का प्रयास शशशृंग के तुल्य है।
१८. शान्ति कोई मूर्तिमान पदार्थ नहीं, वह तो एक निराकुल अवस्था रूप परिणाम है। यदि हमारी इस अवस्था में शरीर से भिन्न आत्मप्रतीति हो गई तो कोई थोड़ी वस्तु नहीं । जब कि अग्नि की छोटी सी भी चिनगारी सघन जंगल को जला सकती है तो आश्चर्य ही क्या यदि शान्ति का एक अंश भी भयानक भव वन को एक क्षण में भस्मसात् कर दे।
१६. संसार में जो इच्छा को हटा देगा वही शान्ति का अधिकारी होगा।
२०. जब तक अन्तरङ्ग परिग्रह न हटेगा तब तक बाह्य वस्तुओं के समागम में हमारी सुख दुःख की कल्पना बनी रहेगी । जिस दिन वह हटेगा, कल्पना नष्ट हो जायगी और बिना प्रयास के शान्ति का उदय हो जायगा। ... ___ २१. पद के अनुसार शान्ति आती है । गृहस्थावस्था में वीतराग अवस्था की शान्ति की श्रद्धा तो हो सकती है परन्तु उसका स्वाद नहीं आ सकता । भोजन बनाने से उसका स्वाद आजावे यह संम्भव नहीं, रसास्वाद तो चखने से ही आवेगा। २२. शुभाशुभ उदय में समभाव रखना शान्ति कासाधन है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org