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और न त्यागनेवाले ही हैं ऐसी वस्तुस्थिति जानकर भी जो देह धन सम्पत्ति आदि में ममत्व नहीं त्यागते वे उन्मार्गगामी जीव बाह्य त्याग कर के कभी सुखी नहीं हो सकते।
३७. धर्म का मूल सिद्धान्त है कि वही आत्मा सुख पूर्वक शान्ति लाभ करने का पात्र होगा जो इन पदार्थों के प्रपञ्च से पृथक् होकर आत्मा की और ध्यान रखेगा।
३८. सुख न संसार में है, न मोक्ष में, न कर्मों के बन्धन में, न कर्मों के अभाव में, सुख तो अपने पास है। परन्तु उस निराकुल सुख का आत्मा के साथ तादात्म्य सम्बन्ध होते हुए भो मोह वश हम उसे अन्यत्र खोजने में लगे हैं।
३६. चित्त में जो लोभ है उसे त्याग दो, जो कुछ मिले उसी में सुख है।
४०. यदि धन संतोष का कारण होता तो सबसे अधिक सन्तोष धनी लोगों को होता, त्यागी वर्ग तो अत्यन्त दुखी हो जाता । परन्तु ऐसा नहीं हैं क्योंकि त्यागी सुखी और धनी दुखी देखे जाते हैं । इसका मूल कारण यह है कि इच्छा के अभाव में सुख होता है।
४१. जहाँ तक हमारा पुरुषार्थ है श्रद्धान को निर्मल बनाना चाहिये । तथा विशेष विकल्पों का त्याग कर सन्मार्ग में रत होना चाहिये । यही सुख का कारण है ।
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