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वर्णी-वाणी
२८. इस संसार में वही जीव सुख का अधिकारी है जो लौकिक निमित्तों के मिलने पर हर्ष और विषाद से अपने को बचा सकता है ।
२६. अन्तरङ्ग में जो धोरता है वही सुख की जननी है ।
३०. “संसार में सुख नहीं" यह सामान्य वाक्य प्रत्येककी जिह्वा पर रहता है। ठीक है, परन्तु संसार पर्याय के अभाव करने के बाद तो सुख नियम से होता है। इससे यही प्रतीत होता है। कि वह सुख कहीं नहीं गया केवल विभाव परिणति हटाने की दृढ़ आवश्यकता है ।
३१. संसार में वही जीव सुख का पात्र है जो अपने हित की अवहेलना नहीं करता ।
३२. पर पदार्थों की अधिक संगति से किसीने सुख नहीं पाया । वे इसको त्यागने से ही सुख के पात्र बने हैं ।
३३. जिसके अन्तरङ्ग में शान्ति है उसे बाह्य वेदना कभी कष्ट नहीं दे सकती ।
३४. वही जीव संसार में सुखी हो सकता है जिसके पवित्र हृदय में कषाय की वासना न रहे, जिसका व्यवहार आभ्यन्तर की निर्मलता को लिये हुए हो ।
३५. हम कहते हैं कि संसार स्वार्थी है । तब क्या इसका यह अर्थ है कि हम स्वार्थी नहीं । अतः इन प्रयोजनभूत विकल्पों को छोड़ कर केवल माध्यस्थ भाव की वृद्धि करो । यही सुख का कारण है ।
३६. “ज्ञानावरणादि पुद्गल की पर्याय हैं उनका परिणमन पुद्गल में हो रहा है । उसके न तो हम कर्ता हैं, न ग्रहीता हैं,
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