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________________ ७५ सुख सब सुख को सामग्री से हीन दीन कुली चैन की वंशी बजाता है । अतः सुखों की प्राति परपदार्थों द्वारा मानना महती भूल है । २२. जितना हमारा प्रयास है केवल दुःख को दूर करने का है हम अनेक उपायों से उसे दूर करने की चेष्टा करते हैं । निद्राभङ्ग होनेपर जब जागृत अवस्था में आते हैं तब एक दम श्री भगवान् का स्मरण करते हैं । उसका यही आशय है--"हे प्रभो ! संसार दुख का अन्त हो सच्ची शान्ति और सुख प्राप्त हो ।” २३. पर पदार्थ के निमित्त से जो भी बात हो उसे पर जानो और जबतक उसे विकार न समझोगे आनन्द न पाओगे। २४. सुखी होने का सर्वोतम उपाय तो यह है कि पर पदार्थों में स्वत्व को त्याग दो । २५. आभ्यन्तर बोध के बिना सुख होना असम्भव है । लौकिक प्रभुतावाले कदापि सुखी नहीं हो सकते । २६. सन्तोष ही परम सुख और वही सच्चा धन है । सन्तोषामृत से जो तृप्ति आती है वह बाह्य साधन से नहीं आती। २७. गृहस्थ के सच्चे सुख का साधन यही है कि अपने उपयोग को १-देवपूजा २ गुरु उपासना ३ स्वाध्याय ४ संयम ५ तप और ६ दान आदि शुभ कार्यों में लगावे । २-आय से व्यय कम करे। ३-सत्यता पूर्वक व्यापार करे भले ही आय कम हो। ४-अभक्ष्य भक्षण न करे । ५-आवश्यकताएँ कम करे । आवश्यकताएँ जितनी कम होंगी उतना ही अधिक सुख होगा । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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