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वर्णी-वाणी
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१५. मूर्ख समागम से पृथक् रहना ही आत्मकल्याण का मूल मन्त्र है । पर में परत्व और निज में निजत्व ही सुख का मूल कारण है।
१६. जीवन को सुखमय बनाने के लिये अपने सिद्धान्त को स्थिर करो । परन्तु वह सिद्धान्त इतना उत्तम हो कि आजन्म क्या आमुक्ति भी उसमें परिवर्तन न करना पड़े।
१५. सुख का मूल कारण अन्तः चित्तवृत्ति की स्वच्छता है।
१८. स्व समय को स्वसमय में लगाना मनुष्य जन्म का कर्तव्य और सुख का कारण है।
१६. तटस्थ रहने में ही सुख है।
२०. हमी अपनी शान्ति के बाधक हैं । जितने भी पदार्थ संसार में हैं उनमेंसे एक भी पदार्थ शान्तस्वभाव का बाधक नहीं । वर्तन में रक्खी हुई मदिरा अथवा डिब्बे में रक्खा हुआ पान पुरुषों में विकृति का कारण नहीं । पदार्थ हमें बलात् विकारी नहीं करता, हम स्वयं मिथ्या विकल्पों से उसमें इष्टानिष्ट कल्पना कर सुखो और दुखी होते हैं । कोई भी पदार्थ न तो सुख देता है और न दुःख देता है, इसलिये जहाँ तक बने आभ्यन्तर परिणामों की विशुद्धि पर सदैव ध्यान रखना चाहिए।
२१. सुख दुःख की व्यवस्था तो अपने में बनानी चाहिये बाह्य पदार्थों में नहीं । उद्यान को मन्द सुगन्धित हवा और फूलों की सुगन्धि, भव्य भवन के पलंग और कुर्सियाँ, वन्दीजन की बन्दना, षट्रस व्यञ्जन, मधुरालाप संलापिनी नवोढा स्त्री, सुन्दर वस्त्राभूषण और आज्ञाकारी स्वजन आदि सुख साधक बाह्य सामग्री के रहने पर भी एक सम्पन्न धनिक अन्तरङ्ग में व्यापरादि की शल्य होने से सुख से वञ्चित रहता है. जब कि इस
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